बिना प्रयोजन के कार्य करना अनर्थ दंड है आचार्य श्री विनिश्चय सागर महाराज
रामगंजमंडी
परम पूज्य आचार्य श्री 108 विनिश्चय सागर महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा कि बिना प्रयोजन के कोई भी कार्य करना अनर्थ दंड है बोलने पर कंट्रोल रखने एवं किस कार्य को हमें करना और किस कार्य को नहीं करना इसका ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने कहा हमे हर कार्य में विवेक रखना चाहिए और यदि हम विवेक रखते हैं तो बहुत मात्रा में हम हिंसा से बच जाते हैं। स्पष्ट है कि हम हिंसा से बचेंगे तभी सुख की अनुभूति कर सकते है।
अहिंसा धर्म के पालन से सुख की अनुभूति होती है
आचार्य श्री ने कहा लोग सोचते हैं कि खाने से पीने से सुख की अनुभूति होती है लेकिन वास्तविकता यह है कि अहिंसा धर्म के पालन से ही सुख की अनुभूति होती है। आप किसी भूखे को भोजन करा दो तो आपको अलग अनुभूति होगी। आप कितना ही भोजन कर लो आपको सुखद अनुभूति नहीं होगी लेकिन भूखे को भोजन कराने के बाद आपको सुखद अनुभव होगा। जैन दर्शन में यदि सबसे ज्यादा जोर है तो वह अहिंसा पर है। भगवान महावीर को दुनिया इसीलिए जानती है कि क्योंकि उन्होंने अहिंसा का उपदेश दिया। इस बात का ध्यान रखें पापोदेश नहीं होना चाहिए। 

हिंसा का दान नहीं होना चाहिए
आचार्य श्री ने कहा अहिंसा धर्म है और हिंसा के उपकरण हम किसी को दे तो वह हिंसा दान होता है, हिंसा दान में संकल्पी हिंसा होती है उन्होंने कहा यदि पड़ोसी भी चाकू मांगने आए तो नहीं देना चाहिए यह हिंसा दान और पड़ोसी अग्नि मांग रहा है तो अग्नि नहीं देना चाहिए अग्नि वाले उपकरण भी नहीं देना चाहिए।
यदि हम हिंसा कारक शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो इसका मतलब है हिंसा तो हो ही रही है
आचार्य श्री ने कहा यदि हमने भाव बनाया किसी को कष्ट पीड़ा देने का तो हिंसा तो हमसे हुई है हम कुछ बोल देते हैं सोचते नहीं सामने वाले को क्या लगेगा, कठोर शब्द बिना सोचे बोले गए शब्द यह कठोर शब्द होते हैं जरूरत नहीं है फ़िर भी हम बोल देते हैं वो काम अच्छे शब्द से भी हो सकता है सम्माननीय आदरणीय शब्दों से भी हो सकता है लेकिन हम हिंसाकारक शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो इसका मतलब है हिंसा तो हो ही रही है, उन्होंने स्कूल जीवन की बातों को बताते हुए कहा कि टीचर अगर कोई अपशब्द बोल देता था तो दो-तीन दिन तक दिमाग खराब रहता था। लगता था मेरा सम्मान खराब हो गया और जब आप बोल रहे तब हम बड़ों से बोल रहे हैं परिवार के लोगों से बोल रहे हैं कितनी हिंसा होगी। अगर घर में बड़े हैं कुछ बोल रहे है बोलने दो लेकिन तुम तो कुछ मत बोलो, अगर वे बोल रहे तो हिंसा के भागीदार हैं और आप बोल रहे हैं तो आप भी तो हिंसा के भागीदार होंगे। उन्होंने कहा कैसे बोलना, कहा क्या करना यही तो नैतिकता है। हम अपशब्द बोल रहे हैं हम अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो हमारी नैतिकता समाप्त हो रही है। अगर हम अच्छा नहीं बोल सकते तो कुछ मत बोलो मोन हो जाओ मध्यस्थ रहो, और जब भी हम अपशब्द बोले तो यह सोच लेना सामने वाले को कैसा लगेगा और यदि वह हमें अपशब्द बोलेगा तो हमें कैसा लगेगा। 
बिना बदलाव के सुधार नहीं होता
आचार्य श्री ने कहा जीवन में जितनी सरलता, सहजता होती है जितनी ज्यादा विनम्रता होती है उतना ज्यादा व्यक्ति का उत्थान होता हैं, इतनी ज्यादा उसकी चर्चा होती है उतने ज्यादा उसके उदाहरण दिए जाते हैं और लोग उनकी चर्या से सीखते हैं जीवन में अपना लक्ष्य तय करते हैं। धार्मिकता और व्यावहारिकता दोनों एक साथ होना जरूरी है। हमारा जैन दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि तुमने व्रत भी धारण कर लिया संयम भी धारण कर लिया और धार्मिक भी हो गए और अगर अनर्थदंड नहीं छोड़ा तो सब किए कराए पर पानी फेरते जा रहे हो। सबसे पहले अनर्थदंड पर कंट्रोल करना चाहिए। उसके बाद आपका व्यवहारिक और धार्मिक भाव बनेगा। इस जीवन में जितना बदलाव लाओगे चर्या में सोच में जितना बदलाव आएगा उतना आप भगवता की और बढ़ेंगे उतना आप सभ्यता मर्यादा और अनुशासन की ओर बढ़ेंगे। बिना बदलाव के सुधार नहीं होता सोच को भी बदलना पड़ता है मन वचन और काय को भी बदलना पड़ता है जैसे-जैसे यह बदलती जाती है परिवर्तन आता है और हमारा उत्थान शुरू हो जाता है।
अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी की रिपोर्ट 9929747312





