अन्तर्मना उवाच
किसी को ये खौफ़ है कि परमात्मा देख ना ले..और किसी की ये आरजू है कि परमात्मा देखता रहे…!
एक फकीर हुआ जो बड़ा विद्वान, अनुभवी सन्त था।* एक दिन राह से गुजर रहा था, उसने सामने से आते हुए एक लंगड़े भिखारी को देखा। भिखारी की एक टांग टूटी हुई थी, परन्तु उसके चेहरे पर जो आनन्द, जो खुशी, जो प्रसन्न्ता और सन्तुष्टि देखी, उसे देखकर, मैं तो हैरान हो गया।
सन्त ने उस भिखारी से पूछा –बड़ी अभाव पूर्ण कठिन ज़िन्दगी है तुम्हारी।पैरों से लाचार, फिर भी चेहरे पर आनंद, मन की प्रसन्नता का कारण क्या है-। ऐसी खुशी, आनंद तो बड़े-बड़े धनपतियों के चेहरे पर भी नजर नहीं आता–? भिखारी ने बहुत गहरी बात कही, महात्मा जी — ये सच है कि मैं गरीब हूँ, लाचार हूँ, यह भी सच है, कि मैं रोज भीख मांगता हूँ। पर मैं यह सोचकर प्रसन्न और सन्तुष्ट बना रहता हूँ कि इस दुनिया में हजारों-लाखों ऐसे भी लोग है, जिनकी स्थिति हमसे भी बदतर है। उनके ना हाथ है, ना पैर है। कुछ अन्धे हैं, तो कुछ बहरे हैं। कुछ के तो दोनों ही नहीं है, तो कुछ गूंगे है। मेरे सौभाग्य से दो आँख है , जिनसे मैं देख रहा हूँ। दो कान है, जिनसे मैं सुन रहा हूँ। दो हाथ है, जिनसे मैं खा पी रहा हूँ। जिन्हें फैलाकर मैं भीख भी मांग रहा हूँ। मैं सोचता हूँ कि मैं उन लोगों से कितना बेहतर हूँ। फिर मैं क्यो ना खुश रहूँ, क्यों ना आनन्दित रहूँ। एक पैर नहीं है तो क्या हुआ -? बाकी तो सब कुछ है। इसको कहते हैं दु:ख में से सुख खोजना। जो है सो है।
किसी ने कहा —
ऐ ज़िन्दगी! तू खेलती बहुत है खुशीयों से हमारी..हम भी इरादे के पक्के हैं, मुस्कुराना नहीं छोड़ेंगे…!!!* नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद से प्राप्त संकलन के साथ अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी