पर्यावरण जीवदया प्रेमी डॉक्टर कल्याण गंगवाल की अपील श्रद्धा और भावना को बनाए रखते हुए दाना सिर्फ अनुमति प्राप्त जगहों पर और सीमित मात्रा में डालें
पर्यावरण प्रेमी शाकाहार प्रचारक जीव दया के क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य करने वाले डॉक्टर कल्याण गंगवाल पुणे ने सभी से अपील करते हुए कहा कि मैं डॉक्टर के नाते आप सभी से विनम्र अपील करता हूं कि मैं जैन धर्म का अनुयायी हूँ। प्राणियों के प्रति दया, करुणा और अहिंसा के सिद्धांतों में मेरा गहरा विश्वास है। कबूतरों को दाना डालना एक श्रद्धा और परंपरा का विषय है, और इसमें मेरा भी भावनात्मक जुड़ाव है।
लेकिन एक डॉक्टर, पर्यावरण प्रेमी और जिम्मेदार नागरिक के रूप में आज मुझे कुछ कठोर लेकिन आवश्यक सच्चाई बतानी है…
❌ कबूतरों को दाना डालना क्यों बंद करें?
1. कबूतर हमारा स्थानीय पक्षी नहीं है — यह मध्य पूर्व से आया एक आक्रामक (invasive) प्रजाति है।
2. प्रकृति से कबूतर “अत्यधिक प्रजनन” करता है – इंसानों से भरपूर भोजन मिलने पर इनकी संख्या अनावश्यक रूप से बढ़ती है।
3. इनकी बीट फेफड़ों की बीमारियों का कारण बनती है – Pigeon Lung Disease, Hypersensitivity Pneumonitis आदि।
4. सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी और यातायात में बाधा पैदा होती है।
5. स्थानीय पक्षी – खासकर गौरैया – हाशिये पर चले गए हैं।
6. प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला बिगड़ती है, पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन डगमगाता है।
7. सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा – खासकर एलर्जी, दमा, बुजुर्ग और छोटे बच्चों के लिए।
8. “न खिलाएंगे तो मर जाएंगे” – यह सोच गलत है –
उनका कहना है धरती पर लाखों प्रजातियाँ इंसानों के बिना लाखों सालों से जीवित हैं।प्रकृति ने उन्हें जीवित रहने की क्षमता और स्वाभाविक संतुलन दिया है।



भावना या विज्ञान?
उनके कहना है की कबूतर धार्मिक पक्षी नहीं है और यह धार्मिक मुद्दा भी नहीं है।यह सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण का मुद्दा है, और इसे उसी सिद्धांत से देखा जाना चाहिए।
राज्य धर्मनिरपेक्ष है।
इसलिए जब विज्ञान बनाम धर्म का सवाल आता है, तो राज्य को विज्ञान चुनना चाहिए।जब भावना बनाम स्वास्थ्य का सवाल आता है, तो राज्य को स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए। उनका कहना है की सरकार को भावनाओं को किनारे रखकर, स्वास्थ्य की बात सुननी चाहिए।और हमें भी वास्तविकता स्वीकारना सीखना चाहिए।
थोड़ा तर्क – थोड़ा दृष्टिकोण: “दाना न देने से कबूतर मर जाएंगे” – ऐसा सोचने वालों को फिरएंटीबायोटिक्स, एंटीवायरल, एंटिफंगल का भी उपयोग नहीं करना चाहिए – क्योंकि वे लाखों जीवाणु, वायरस, फंगस को मारते हैं। फिर यह भी “जीव हत्या का नरसंहार” माना जाएगा, है ना? विशेष व्याख्या करते हुए श्री गंगवाल कहते हैं कि कबूतरों को न खिलाने से उनकी प्राकृतिक भोजन खोजने की प्रवृत्ति बढ़ेगी,उनकी संख्या नियंत्रण में रहेगी,और खाद्य श्रृंखला सुरक्षित रहेगी।श्रद्धा और भावना को बनाए रखते हुए, दाना सिर्फ अनुमति प्राप्त जगहों पर और सीमित मात्रा में डालें अस्पताल, सार्वजनिक स्थानों और गलियों में कबूतरों को दाना डालने से बचें।उनका कहना है अगर गौरैया को वापस लाना है, तो कबूतरों की अधिकता रोकनी ही होगी। यही सच्चा धर्म है – जहाँ श्रद्धा, विज्ञान और सह-अस्तित्व एक साथ आते हैं।
उन्होंने कहा कि मैं पिछले पचास साल से अहिंसा/ जीवदया / शाकाहार / पशु.पक्षी रक्षा के काम में तन. मन.धन से जुड़ा हूँ! मकर संक्रांति के दिनों में पिछले बीस सालों से “विद्या .प्रमाण रेस्क्यू अभियान “ चलाता हूँ ! आज तक सेकड़ो पशु पक्षी बचाए है ! कुछ दिनो से “कबूतर खानो “ के बारे मे देश भर में चर्चा है ! डॉक्टर के नाते मैं आपसे अनुरोध करता हूँ की हम सिर्फ़ भावना विवश न होकर मानवी सेहत का भी सम्मान करें ! घनी आबादी के बीच कबूतर खाने न हो ! इन कबूतर खानों का स्थलांतर करे ! कबूतरो को भी बचाये और मानवीय आरोग्य की रक्षा करे उन्होंने अंत में कहा मेरे विचारों से आपकी भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ ! डॉ कल्याण गंगवाल पुणे ( महाराष्ट्र)
प्राप्त जानकारी के साथ अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी की रिपोर्ट 9929747312




